कोरोना के आते ही में तो काफ़ी ख़ुश था कि कोरोना हम भारतीयों को सारी नफ़रत भुला कर एक मंच पर खड़ा कर देगा। और शुरूआत के कुछ दिन ऐसे ही गुज़रे। न्यूज़ चैनलों पर कोई शोरशराबा नहीं, कोई तू तू मैं मैं नहीं। और इसी वजह से ज़मीनी अस्तर पर भी काफ़ी शांति थी। न्यूज़ एंकर अंताक्षरी खेल रहे थे। कई लोग जो सोशल मीडिया पर बड़ी मुस्तइदी से ज़हर बो रहे थे बिलकुल ख़ामोश हो गए थे। देश का हर शांतिप्रिय नागरिक ख़ुश था, कि हो सकता है कोरोना हम में से कुछ लोगों की जान ले-ले लेकिन हमारा भाई चारा वापिस ज़िंदा हो जाएगा। परंतु यह सब कुछ ज़्यादा दिन न चल सका, हमारे तथाकथित मीडिया ने हमारी ग़लतफ़हमी दूर कर दी। और इस के बाद जो शुरू हुआ वो इंतिहाई शर्मनाक है। न्यूज़ एंकरों ने मास्क उतार कर दुबारा मुँह से गंद फैलाना शुरू कर दिया और हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन उन्हीं के बीच “दी लल्लन टाप” के सौरभ द्विवेदी भी नज़र आए तो दिल बेचैन हो गया। बिना राय ज़ाहिर किए चैन नहीं मिल रहा। अगरचे सौरभ अब भी बात कहने में अपनी ख़ास एहतियात बरत रहे हैं। जो उनकी अपनी खास पहचान है। लेकिन चल तो उसी राह पर रहे हैं जो मुनासिब नहीं।
विश्व का पहला कोरोना केस 17 नवंबर, 2019 को चीन के प्रांत हवेबी में पाया गया। वुहान शहर इसी प्रांत की राजधानी है। लेकिन जब ये वाइरस घातक महामारी बन कर तेज़ी से फैलने लगा तो 23 जनवरी, 2020 को चीन ने हवेबी प्रांत के तमाम शहरों को पूरे तौर पर लॉकडाउन कर दिया। उसे देखकर दुनिया के समझदार देशों ने ज़बरदस्त सावधानी बरतनी शुरू कर दी। हमारे भारत में कोरोना का पहला केस इसी साल 30 जनवरी को केरल में पाया गया। यह कोरोना संक्रमित व्यक्ति वुहान के एक संस्थान का विद्यार्थी था। इस का नाम, धर्म एवं ज़ाति का किसी को पता नहीं है। और होना भी नहीं चाहिए क्योंकि हर तरह की प्राईवेसी एक मरीज़ का हक़ है। पहला केस आ जाने के बाद भारत को बिलकुल चौकन्ना हो जाना चाहिए था। लेकिन भारत क्या चौकन्ना होता भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने इस ख़तरनाक अलार्म के बजने के तेईस चौबीस दिन बाद डोनाल्ड ट्रम्प के स्वागत के लिए “नमस्ते ट्रम्प” प्रोग्राम में लाखों की भीड़ जमा की। जहां सोशल डिस्टेंस तो दूर लोग एक दूसरे से चिपके जाते थे। इसी भीड़ में डोनाल्ड ट्रम्प के इलावा बहुत सारे विदेशी भी शामिल थे। यह प्रधानमंत्री साहब का हाल था तो बाक़ी देश वासियों का हाल बयान करने की आवश्यकता नहीं है। सब कुछ जूं का तूं चलता रहा। कनिका कपूर कोरोना वाएरस के साथ विभिन्न लोगों से मिलती रहीं। उनके इलावा भी कोरोना संक्रमित पूरे मुल्क में बेफ़िकर घूमते रहे। पहले केस के क़रीब दो महीने बाद 24 मार्च को भारत सरकार को होश आता है। तब जा कर पूरे देश में मुकम्मल लॉकडाउन का ऐलान होता है। मस्जिद मंदिर के साथ साथ तमाम सार्वजनिक जगहें बंद हो गईं । कई मस्जिदों और मंदिरों में लोगों को जमा होने से रोकने के लिए पुलिस को सख़्ती से काम लेना पड़ा। लॉकडाउन का ऐलान होते ही पूरे मुल्क से लोगों का हुजूम अपने अपने घरों को पैदल निकल पड़ा। सोशल डिस्टेंस की ख़ूब धज्जियाँ उड़ीं। सब्ज़ी मंडीयों और आम बाज़ारों में लोगों का सेलाब उमँडता रहा। मजनू का टीला गुरुद्वारा में दो सौ लोग फंसे रहे। दिल्ली के एक लेबर कम्पाऊंड में हज़ारों मज़दूर पेशा लोग बिना किसी सावधानी के ठस ठस कर पड़े रहे। और भी बहुत सी जानलेवा लापरवाहियां होती रहीं। सरकार और मीडीया हाऊसेज़ इन तमाम बातों को ख़ामोशी से नज़रअंदाज करते रहे। “नमस्ते ट्रम्प” से लेकर अब तक की भेड़ों में कोरोना अपना काम करता रहा और सब ख़ामोश रहे। अचानक निज़ामुद्दीन के तब्लीग़ी मर्कज़ का मुद्दा उठता है और एक-बार फिर से नफ़रत की हांडी में ज़ोरों का उबाल आ जाता है। तक़रीबन सारे मीडीया चैनल तब्लीग़ी जमात के हवाले से एक एक ख़बर पूरे विस्तार और अपनी पूर्व महारतों के साथ बताने लगे। सारे कोरोना संक्रमितों का डाटा अलग और तब्लीग़ी कोरोना संक्रमितों का डाटा अलग अलग से ज़िक्र किया जाने लगा। कुछ महान तथाकथित पत्रकारों ने तो उसे “कोरोना जिहाद”, “कोरोना बम” और मुस्लमानों की सोची समझी साज़िश तक क़रार दे दिया। और सारे मुल्क में इस मुद्दे की आड़ में मुस्लमानों से नफ़रत की हआ चल पड़ी।
निज़ामुद्दीन मुआमले में असल ग़लती मर्कज़ की थी या प्रशासन की इस से मुझे कोई सरोकार नहीं। मुझे उम्मीद है असल ज़िम्मेदारों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई होगी। लेकिन जो ग़लती हम से और मीडीया से हो रही है वो है जाने अनजाने में मर्कज़ के मुद्दे की आड़ में नफ़रत की खेती। मरीज़ों के संविधानिक अधिकारों में से एक हक़ प्राईवेसी का हक़ भी है। ताकि उस के रोग की वजह से समाज में उसे किसी भी प्रकार की परेशानी का सामना ना करना पड़े। लेकिन यहां तब्लीग़ी कोरोना संक्रमितों की तादाद ख़ुसूसी तौर पर बयान की जा रही है। जिससे केवल वह कोरोना संक्रमित ही नहीं ब्लकि उनकी पूरी क़ौम अवामी नफ़रत का शिकार हो गई। उनको ट्रेस किया जा रहा है। उनको कोरेनटाइन के लिए अपराधियों के से अंदाज़ में तलाश किया जा रहा है। हम ये नहीं कहते कि ऐसे लोगों को तलाश न किया जाए। उन्हें कोरिनटाइन में न रखा जाए। लेकिन जहां “नमस्ते ट्रम्प” की भीड़ पर कोई चर्चा न हो। जहां सब्ज़ी मंडीयों और आनंद विहार जैसे बस अड्डों की भीड़ पर कोई बात न हो। वह भीड़ कहाँ कहाँ गई उस की कोई तलाश न हो। ताली और दिया यात्रा में शामिल लोगों को बिलकुल नज़रअंदाज कर दिया जाए। गुरुद्वारे में फंसे लोगों का अलग से ज़िक्र करने की कोई ज़रूरत न हो। वहां तब्लीग़ी जमात का ख़ुसूसी तौर पर ज़िक्र करना कहाँ का इन्साफ़ है। मरीज़ों का बिरादरी की बुनियाद पर अलग से ज़िक्र करना नाइंसाफ़ी नहीं तो और किया है? कोई मुझे बताए “नमस्ते ट्रम्प” और मर्कज़ की भीड़ में क्या अन्तर है? मुल्क भर में पलायन करने वाले मज़दूरों और मर्कज़ की भीड़ में क्या अन्तर है? मान लेता हूँ कि मर्कज़ के लोग लॉकडाउन का उलंघन कर रहे थे। तो क्या रामनवमी की पूजा में विभिन्न जगहों पर जमा भीड़ लॉकडाउन का उलंघन नहीं कर रही थी? मान लेता हूँ कि तब्लीग़ी कोरोना को लेकर पूरे देश में घूमते रहे तो क्या आनंद विहार जैसे बस अड्डों की भीड़ ने पूरे मुल्क में कोरोना नहीं फैलाया होगा? अगर इस भीड़ को बिना किसी भेद-भाव के कोरंटाईन किया जा सकता है तो क्या तब्लीग़ी जमात में से कोरोना संक्रमितों को बिना किसी भेद-भाव के कोरंटाईन नहीं किया जा सकता है? अगर ये लॉकडाउन में फंसी लाखों लोगों की भीड़ दयनीय हो सकती है तो लॉकडाउन में देश भर में फंसे तब्लीग़ी लोग क्यों दया के काबिल नहीं हैं?
में एक बुराई से दूसरी बुराई को जायज़ नहीं ठहरा रहा। मैं बस इस भेद-भाव पर सवाल उठा रहा हूँ जिस भेद-भाव की वजह से पूरे मुल्क के मुस्लमान अवामी नफ़रत का सामना कर रहे हैं। कहीं मुस्लमानों का सोशल बाईकॉट शुरू कर दिया गया है। कहीं मुस्लमान सब्ज़ी और फल बेचने वालों को भगाया जाने लगा है। दाढ़ी टोपी वालों से गाली ग्लोच और उन्हें मारा पीटा जाने लगा है। कहने का अर्थ देश में कोरोना का सारा दोष मुस्लमानों के सर डाल कर लोगों के दिलों में उनके ख़िलाफ़ नफ़रत भर दी गई। मान्यवर! बहुत मायूस हो चुके हैं हम। अब और कितना मायूस करना चाहते हैं? एक मायूस व्यक्ति किसी भी हद तक जा सकता है। अपनी और दूसरों की जान तक ले सकता है। और आप हैं कि एक इन्सान को नहीं एक भीड़ को मायूस किए जा रहे हैं। हमारे लिए न सही देश की भलाई के लिए ये मायूसी फैलाने का कारोबार बंद कर दीजिए। अपनी आने वाली नसलों के लिए बंद कर दीजिए लेकिन ख़ुदारा, अब बंद कर दीजिए।
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