इस्लाम और व्यक्तिगत स्वतंत्रता

मोहम्मद गुफरान दानिश

एक कथन है कि मनुष्य की स्वतंत्रता का उस जगह अंत हो जाता है जहां से दूसरों की स्वतंत्रता का आरंभ होता है। और यह सत्य है क्योंकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ कदापि यह नहीं है कि आप जो चाहें करें, जिसको जो चाहे कहें और आप इस पर उत्तरदायी न हों। इसी प्रकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ यह भी नहीं जिसका ढिंढोरा पश्चिमी देश पीटते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है। वो जो चाहे करे, जिस प्रकार चाहे जीवन व्यतीत करे और जिसके साथ जैसा चाहे व्यवहार करे। इतिहास गवाह है, इस स्वतंत्रता का परिणाम यह निकला कि केवल अमेरिका में यह दशा हो गई कि हर 10 में से 9 बच्चों का जन्म अवैध होने लगा।
इसी प्रकार उनके व्यक्तिगत स्वतंत्रता के दावे की पोल जान पोर्ट के इस रिपोर्ट से खुल जाती है कि डेढ़ करोड़ मनुष्य केवल ईसाई धर्म के भेंट चढ़ा दिए गए और रूस फ्रांस व अमेरिका ने लोकतंत्र स्थापित करने के लिए लाखों-करोड़ों मनुष्यों को मौत के घाट उतार दिया।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या इसी का नाम व्यक्तिगत स्वतंत्रता है? यदि नहीं तो फिर आख़िर वह है क्या?
आइए हम आपको इस्लाम धर्म की ओर ले चलते हैं और बताते हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता उसकी सीमाएं और नियम क्या हैं?
प्रिय पाठको! इस्लाम ने प्रथम दिन से ही सारे मनुष्यों को “ला इलाहा इल्लल्लाह” का उपदेश दिया इस वचन का पहला खंड “ला इलाहा” मनुष्य को हर प्रकार की रुकावट व बंदिश और दस्त व गुलामी से मुक्त करके दूसरे खंड “इल्लल्लाह” के द्वारा उनको एक अल्लाह से जोड़ देता है। इस प्रकार वह जीवन के प्रत्येक विभाग में ऐसीे स्वतंत्रता प्रदान करता है जो दूसरों की स्वतंत्रता से नहीं टकराता। क्योंकि एक मनुष्य अपनी भाषा और अंग के प्रयोग में उसी हद तक स्वतंत्र है जिससे दूसरों की स्वतंत्रता भंग न होती हो।
इतना ही नहीं बल्कि इस्लाम ने मनुष्यों को इस्लाम धर्म स्वीकार करने या न करने का अधिकार दिया है और इसके लिए वह किसी को विवश नहीं करता, कुरान का एलान है: “धर्म के मामले में कोई जो़र-ज़बरदस्ती नहीं”(सूरह बक़रह: 256) अर्थात्: धर्म के प्रति मनुष्य स्वतंत्र है। एक दूसरे स्थान पर मनुष्य को धर्म के प्रति स्वतंत्रता का अधिकार देते हुए अल्लाह तआला कहता है: “निश्चित रूप से हमने दोनों मार्ग दिखा दिया, अब चाहे वह शुक्रगुजार बने चाहे नाशुक्रा”। (सूरह दहर:3)
इस्लाम ने जहां एक अल्लाह की पूजा करने का आदेश दिया है वहीं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सीमा तय करते हुए अपने मानने वालों को यह भी आदेश दिया कि “गाली मत दो उनको जिन की यह लोग अल्लाह को छोड़कर पूजा करते हैैं।” (सूरह अंआम:108)
इसी प्रकार इस्लाम ने जहां मनुष्यों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान किया वहीं दूसरों के स्वतंत्रता का उल्लंघन करने से भी मना किया और उनका आदर व सम्मान करने का आदेश दिया। नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आखिरी हज में ऐलान करते हुए कहा था कि:”निश्चित रूप से तुम्हारा रक्त, तुम्हारा धन और तुम्हारा सम्मान एक दूसरे पर ऐसे ही सम्मानीय हैं जैसे आज के इस दिन की इज्जत, इस शहर की पवित्रता और इस महीने का सम्मान।।”
(सही बुखारी:1739)
और इसका जीवित उदाहरण यह है कि एक बार हजरत उमर रजि़ अल्लाहु अनहो नेे मिस्र के गवर्नर अमर बिन आस रजि़ अल्लाहू अनहो को उनके पुत्र के द्वारा किसी पर अत्याचार करने के विषय में मदीना बुलाया और न्याय करते हुए कहा: “हे अमर! तुमने लोगों को कब से अपना गुलाम बना लिया जबकि उनकी माताओं ने उन्हें स्वतंत्र (आजा़द) जन्म दिया था।
इसी प्रकार इस्लाम ने जहां दूसरों के प्रति अपने विचार और मत को प्रकट करने की अनुमति दी है वहीं दूसरी ओर उसकी एक सीमा भी तय कर दी कि यदि कोई घमंड में और दूसरे के अपमान के लिए ऐसा करता है तो इस्लाम कभी भी इसकी अनुमति नहीं देता।
हज़रत उमर रजि़ अल्लाह अनहो ने अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता को इस प्रकार बढ़ावा दिया कि एक मनुष्य राह चलते हुए या भारी सभा में जहां चाहता आपको टोक देता, यही कारण है कि आपको अपने शरीर पर दो चादरों का हिसाब भी भरी सभा में देना पड़ा, और आप अप्रसन्न होने के बजाय कहते कि: “इन्हें न रोको अगर यह लोग हमसे ऐसी बात कहना छोड़ दें तो फिर इनके यहां होने का क्या लाभ?”
इस्लाम ने जहां मनुष्य को धन-दौलत कमाने खाने की पूरी स्वतंत्रता दी वहीं उसके लिए एक सीमा तय कर दी और कहा: “हे ईमान वालो! जो रोज़ी हमने तुम्हें दे रखी हैं उस में से केवल पवित्र (हलाल) चीज़ों को खाओ और अल्लाह का शुक्र अदा करो अगर तुम उसी की इबादत करते हो।”(सूरह बकरह:172)
इसी प्रकार इस्लाम ने जहां एक पुरूष को एक से चार शादी करने की स्वतंत्रता दी वहीं दूसरी ओर यह भी आदेश दिया और कड़ी शर्त लगाई कि “यदि तुम्हें उनके बीच न्याय न कर पाने का भय हो तो एक ही पर संतोष करो”।।(सूरह निसा:3)
इतना ही नहीं बल्कि इस्लाम ने अपने शत्रुओं से युद्ध के बारे में भी एक सीमा तय की और नियम बतलाते हुए कहा कि: “तुम केवल उनसे युद्ध करो जो तुम से युद्ध करते हैं और दूसरों पर अत्याचार न करो।। “(सूरह बकरह:190)
प्रिय पाठको! इन बातों और उदाहरणों से पूर्ण रूप से यह सिद्ध होता है कि इस्लाम ने न केवल जीवन के प्रत्येक विभाग में स्वतंत्रता प्रदान किया बल्कि साथ ही साथ उसके लिए एक सीमा भी तय की, और यही व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सही उच्चारण और अर्थ है।।
अंत में अल्लाह तआला से प्रार्थना करता हूं कि हे रब! तू हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से समझने की शक्ति दे और हम तमाम मानव समाज को मिलजुल कर रहने की क्षमता दे।। आमीन।

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